Sunday, November 15, 2020

लोकतंत्र में फेसबुक पर आलोचना पर एफआईआर?

 जब हम ब्रिटिश शासन से मुक्त हुए, तो हमने हमारे देश में राजशाही की जगह लोकतंत्र का शासन रखने का विचार किया। शायद उस समय के आम नागरिकों से लेकर खास नेताओं तक का यही स्वप्न रहेगा कि लोकतंत्र में सभी को अपनी बात रखने का अधिकार होगा। सभी को स्वतंत्रता होगी। किसी का दमन नहीं होगा आदि आदि। फिर उस लोकतंत्र की आत्मा को शरीर देने के लिए राजनैतिक व्यवस्थाएं की गईं, और उसके मस्तिष्क के रूप मेंं संविधान को निर्माण किया गया। शायद संविधान बनाते समय यह विचार रहा होगा कि कहीं लोकतंत्र के मार्ग पर देशवासी भटक न जाएं, इसलिए उनको हर समय राह दिखाने के लिए कुछ लिखित दस्तावेज होना चाहिए। लिखित दस्तावेज के रूप में हमें संविधान प्राप्त हुआ। विश्व का सबसे बडा लिखित संविधान। उस समय  नागरिकों के अधिकारों की अवधारणा भी दी गई, जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का बडा योगदान था। शायद उस समय के आम नागरिकों को यह आभास नहीं रहा होगा  कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार, कितना बडा अधिकार है। इसका एक कारण यह भी रहा होगा कि उस समय का आम नागरिक अपने जीवन की रोटी-कपडा-मकान जैसी मूलभूत चीजों के प्रबंध में ही इतना उलझा होगा कि कुछ कहने का समय ही नहीं मिलता होगा। कुछ कहना चाहे भी तो सुने कौन? बाद में जब टीवी रेडियों का चलन हुआ, तो वहां तो केवल पढे लिखे तबके के उंचे लोग ही बोलते थे। आम आदमी तो तब भी मौन था। बोलना चाहे भी बोले कहां, और बोल भी दे तो सुने कौन। लेकिन आज लोग उसका महत्व समझ पा रहे हैं। आज लोगों के पास सोशल मीडिया की ताकत है। हालांकि अभी सभी लोग इसका पर्याप्त महत्व नहीं समझ पाए हैं, लेकिन धीरे धीरे समझ रहे हैं। शायद इसी वजह से हम आम नागरिक बोल सकता है। स्वयं को व्यक्त कर सकता है। अब उसकी सुनी भी जाती है। अब हुक्मरानों को डर रहता है कि पता नहीं कब किस आम नागरिक की आवाज, पूरे देश की आवाज बन जाए। जब से जनसाधारण की पहुंच इंटरनेट और सोशल मीडिया तक पहुंची है, तब से परिवर्तन की शुरूआत हुई है। अब हर मुद्दे पर जनसाधारण अपनी राय व्यक्त कर सकता है, और उसकी सुनी भी जाती है। हाल ही के कुछ घटनाक्रमों ने बता दिया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रयोग करते हुए जनसाधारण ने सोशल मीडिया पर आवाज उठाई है, तो सरकारों को अपने फैसलों पर पुनर्विचार तक करना पडा है। यह लोकतंत्र को सशक्त बनाता है। पर यहां भी सबकुछ उतना आसान नहीं है जितना पहली निगाह में दिखाई पडता है। लोगों ने तो अपने अधिकारों का धीरे धीरे प्रयोग करना शुरू कर दिया है, लेकिन अफसरशाही का अंग्रेजों के जमाने का रवैया अभी तक पूरी तरह गया नहीं है। अनेकों बार ऐसा होता है कि बोलने वाले को अपने बोलने की सजा भुगतनी पडती है। कईं जगहों पर छोटे बडे राजनेताओं, अफसरों अथवा ताकतवर लोगों को लगता है कि उन्हे कोई कुछ नहीं बोल सकता । कोई उनके ऊपर प्रश्नचिन्ह नहीं लगा सकता। अगर कोई ऐसा करने की कोशिश करता है तो इन लोगों का 'ईगो हर्ट' हो जाता है और अनेकों हथकंडे अपना कर ये उस आवाज को दबाने की भरकस कोशिश करते हैं। ऐसे में स्वतंत्र न्यायपालिका की अवधारणा को का महत्व समझ में आता है। जब जनसाधारण के ऊपर इस तरह का शक्ति प्रयोग होता है, तब न्यायपालिका सक्रिय भूमिका निभाते हुए, जनसाधारण के अधिकारों की रक्षक सिद्ध होती है। कुछ ऐसा ही हमें दिखा इलाहबाद हाईकोर्ट में आई एक याचिका में, जो कि उमेश प्रताप सिंह नाम के एक व्यक्ति के संबंध में थी।

उमेश प्रताप नाम के इन महोदय ने एक फेसबुक पोस्ट की थी। उस फेसबुक पोस्ट में प्रयागराज जिले के कोटवा बानी में बने एक क्वारंटीन सेंटर में अव्यवस्थाओं के बारे में जिक्र किया था।   शायद उमेश जी ने सोचा होगा कि फेसबुक पोस्ट के बाद उन अव्यवस्थाओं में सुधार होगा, लेकिन जैसा सोचा जाता है, अक्सर वैसा होता नहीं। उमेश जी के विरुद्ध एफआईआर दर्ज करवा दी गई।  इसके बाद इस संबंध में इलाहबाद हाईकोर्ट में याचिका लगाई गई।  याचिका का केस टाईटल है-  उमेश प्रताप सिंह बनाम यूपी राज्य और 4 अन्य [2020 की आपराधिक विविध रिट याचिका संख्या - 6691]। इसमें हाईकोर्ट ने निर्णय सुनाते हुए कहा “यह एफआईआर स्पष्ट रूप से दुर्भावानागस्त और दुष्‍प्रेरित है...” । 

न्यायालय ने 4 नवंबर को अपने निर्णय में कहा कि “हमने सराहना की होती, अगर अधिकारियों ने फेसबुक पोस्ट पर ध्यान दिया होता और पोस्ट की सामग्री के विरोध में कुछ सामग्री लाते या कुछ सामग्री लाते, जिसमें यह दिखाया जाता है कि फेसबुक पोस्ट के बाद, उन्होंने क्वारंटीन सेंटर को बेहतर ढंग से प्रबंधित किया....”। 

न्यायालय ने यह भी आदेश दिया कि याचिकाकर्ता को पांच हजार रुपये की क्षतिपूर्ति राशि दी जाए। यह राशि सरकारी खजाने से नहीं बल्कि संबंधित अधिकारी (प्रतिवादी संख्या 4 और 5) के वेतन से दी जाएगी।

इस मामले से यह हमें पता चलता है कि आज भी ऐसे अफसर सिस्टम में उपस्थित है, जो किसी आम नागरिक के द्वारा अव्यवस्थाओं के उजागर किये जाने से नाराज हो जाते हैं, और कार्यवाही करते हैं। इस मामले में न्यायालय ने माना कि “यह स्पष्ट है कि एफआईआर अधिकारियों द्वारा क्वारंटीन सेंटर के प्रबंधन में हुए कुप्रबंधन और अव्यवस्‍थाओं के खिलाफ पैदा हुई असंतोष की आवाज को दबाने के लिए दर्ज की गई है।...” हालांकि न्यायालय ने उमेश जी को राहत दी, लेकिन फिर भी यह उदाहरण है कि इस तरह की कार्यवाहियां अक्सर होती हैं। ऐसे में आम नागरिक को चाहिए कि वो न्यायालय पर विश्वास बनाए रखे और अपने अधिकारों के हनन होने पर न्यायालय की शरण में जाए। सर्वोच्च न्यायालय को संवैधानिक अधिकारों का संरक्षक अथवा अभिभावक माना जा सकता हैं। जब आम नागरिक की बात कोई नहीं सुनता, तब न्यायालय उसकी सुनता है। न केवल उसकी सुनता है, बल्कि उसे न्याय दिलाता है। हालांकि आम नागरिकों को यह भी समझना चाहिए कि हमारा देश अत्यंत विशाल है। ऐसे में हर जगह हर व्यवस्था एकदम आदर्श स्थिति में हो यह संभव नहीं। हमारे अधिकारीगण, प्रशासन और सिस्टम निरंतर कार्य करता है। लेकिन कार्यभार अधिक होने के कारण कईं बार अव्यवस्थाएं हो जाती हैं। ऐसे में सकारात्मक सोच अपनाते हुए प्रशासन, सिस्टम का सहयोग करते हुए सकारात्मक रूप से भागीदारी निभाएं, और व्यवस्था बनाए रखनें में सहयोग करे। अधिकारों के साथ कर्तव्य भी आते हैं। इसलिए अपना कर्तव्य निभाने में न चूकें। अधिकारियों, और प्रशासन को चाहिए कि किसी द्वारा की गई आलोचना पर नाराज होकर कार्यवाही करने के स्थान पर उस व्यक्ति की समस्या को सुनकर उसे दूर करने के प्रयत्न करें। इससे समाज में उनकी छवि बेहतर ही होगी। बाकि किसी भी नागरिक, चाहे वो आम व्यक्ति हो, या राजनेता, या अधिकारी, अपने अधिकारों के हनन की स्थिति में न्यायालय की शरण ले सकता है। न्यायालय निश्चित ही आपनी सुनेगा।




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