स्वतंत्रता
के बाद भारत में लोकतांत्रिक शासन की स्थापना की गई, जिसके लिए मुख्यतः तीन शाखाएं
बनाई गईं जो कि न्यायपालिका, कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका के नाम से जानी जाती
हैं। संविधान में एवं अन्य दस्तावेजों में इनकी शक्तियों एवं सीमाओं का वर्णन है।
लेकिन कुछ स्थानों पर इनकी सीमाओं का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, जो कि विवाद का बिषय
बन जाता है। हमारे संविधान निर्माताओं ने एक स्वप्न देखा जो भारत में पूर्ण एवं
मजबूत लोकतंत्र की स्थापना, नागरिकों को मौलिक अधिकार, सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक
न्याय एवं निर्धन के लिए कल्याणकारी योजनाओं की भावना निहित रखता था। लेकिन आजादी
के कुछ दशकों में ऐसी स्थितयां सामने आईं कि सत्ता पाने के लिए अनैतिक हथकंडे
अपनाए जाने लगे, और येन-केन-प्रकारेण सत्ता हासिल करना ही लक्ष्य रह गया। ऐसे में
आम नागरिक के अधिकारों का हनन होने लगा तथा संविधान द्वारा प्रदत्त शक्तियों का
दुरूपयोग होने लगा। राजनीतिक व्यवस्था की इस बिगडती दशा पर कुछ
बिशेष विचारधारा रखने वाले न्यायविदों का ध्यान गया और उन्हे महसूस हुआ कि न्याय
केवल उनके लिए नहीं है जिनके पास शक्ति एवं संसाधन है। न्याय हर नागरिक के लिए है।
न्यायपालिका द्वारा नागरिकों के हित में न्यायिक समीक्षा की कोई सीमा नहीं है। ऐसे
में न्यायपालिका नें संवैधानिक मूल्यों को बचाने और नैतिका की रक्षा के लिए सक्रिय
भूमिका निभाना प्रारंभ किया। न्यायिक समीक्षा के द्वारा न्यायालय कार्यपालिका
और विधायिका के फैसलों की समीक्षा लोक
कल्याण में कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त न्यायिक फैसलों की समीक्षा भी न्यायपालिका
द्वारा की जा सकती है। संविधान में शक्ति पृथक्करण का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, ऐसे
में न्यायपालिका नें संविधान की व्याख्या करने का कार्य किया है। अनुच्छेद 121 और 211 विधायिका
को अपने कर्तव्यों के निर्वहन में किसी भी न्यायाधीश के आचरण पर चर्चा करने से मना
करते हैं, वहीं
दूसरी तरफ, अनुच्छेद 122 और 212 अदालतों
को विधायिका की आंतरिक कार्यवाही पर निर्णय लेने से रोकते हैं। कुछ ऐसे भी उदाहरण
हैं जहां न्यापालिका द्वारा कार्यपालिका के कार्यक्षेत्र का अतिक्रमण भी किया गया
है जैसे सुभाष काशीनाथ महाजन बनाम महाराष्ट्र राज्य (2018) तथा
राजेश शर्मा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2017) आदि।
न्यायपालिका की सक्रियता से कार्यपालिका के उन
फैसलों की समीक्षा की जा सकती है जो लोककल्याण में बाधा बनते हैं। कोई सार्वजनिक
शक्ति अपनी शक्तियों का दुरूपयोग कर, नागरिकों को नुकसान पहुंचाती है, अथवा ऐसे
मामले जिनमें विधायिक बहुमत के मुद्दे पर फंस जाती है, ऐसे में न्यायपालिका सक्रिय
भूमिका निभाते हुऐ लोककल्याण में न्यायिक समीक्षा कर फैसले ले सकती है। हालांकि
न्यायिक सक्रिया के विरोधी अक्सर तर्क देते हैं कि न्यायधीश किसी भी कानून आदि के
अधिकारों पर अतिक्रमण कर सकते हैं, अथवा ऐसे फैसले ले सकते हैं, जो निजी
उद्देश्यों से प्रेरित हो सकते हैं। निरंतर न्यायिक हस्तक्षेपों के कारण सरकारी
संस्थानों की दक्षता, गुणवत्ता पर लोगों का विश्वास कम हो सकता है।
हालांकि न्यायिक सक्रियता का स्पष्ट उल्लेख
संविधान में नही है, यह तो न्यायपालिका के द्वारा लोककल्याण की भावना से तैयार एक
प्रभावशाली औजार है । न्यायिक सक्रियता से लोक कल्याण के फैसले तो लिए जा सकते
हैं, लेकिन इसके दुरूपयोग की आशंका से भी इंकार नहीं किया जा सकता। संतुलन बनाए
रखने के लिए न्यायिक अनुशासन की आवश्यकता है। कानूनो का निर्माण करना, या कमियों
को दूर करना विधायिका का कार्य है, और उन कानूनों को उचित तरीकों से लागू कराना
न्यायपालिका का कार्य है। सभी अंगो को संतुलित ढंग से कार्य करना चाहिए, तभी सही
मायनों में लोकतंत्र को मजबूती प्रदान होगी।