Thursday, July 23, 2020

न्यायपालिका की सक्रियता एवं लोक कल्याण


स्वतंत्रता के बाद भारत में लोकतांत्रिक शासन की स्थापना की गई, जिसके लिए मुख्यतः तीन शाखाएं बनाई गईं जो कि न्यायपालिका, कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका के नाम से जानी जाती हैं। संविधान में एवं अन्य दस्तावेजों में इनकी शक्तियों एवं सीमाओं का वर्णन है। लेकिन कुछ स्थानों पर इनकी सीमाओं का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, जो कि विवाद का बिषय बन जाता है। हमारे संविधान निर्माताओं ने एक स्वप्न देखा जो भारत में पूर्ण एवं मजबूत लोकतंत्र की स्थापना, नागरिकों को मौलिक अधिकार, सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक न्याय एवं निर्धन के लिए कल्याणकारी योजनाओं की भावना निहित रखता था। लेकिन आजादी के कुछ दशकों में ऐसी स्थितयां सामने आईं कि सत्ता पाने के लिए अनैतिक हथकंडे अपनाए जाने लगे, और येन-केन-प्रकारेण सत्ता हासिल करना ही लक्ष्य रह गया। ऐसे में आम नागरिक के अधिकारों का हनन होने लगा तथा संविधान द्वारा प्रदत्त शक्तियों का दुरूपयोग होने लगा। राजनीतिक व्यवस्था की इस बिगडती दशा पर कुछ बिशेष विचारधारा रखने वाले न्यायविदों का ध्यान गया और उन्हे महसूस हुआ कि न्याय केवल उनके लिए नहीं है जिनके पास शक्ति एवं संसाधन है। न्याय हर नागरिक के लिए है। न्यायपालिका द्वारा नागरिकों के हित में न्यायिक समीक्षा की कोई सीमा नहीं है। ऐसे में न्यायपालिका नें संवैधानिक मूल्यों को बचाने और नैतिका की रक्षा के लिए सक्रिय भूमिका निभाना प्रारंभ किया। न्यायिक समीक्षा के द्वारा न्यायालय कार्यपालिका और  विधायिका के फैसलों की समीक्षा लोक कल्याण में कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त न्यायिक फैसलों की समीक्षा भी न्यायपालिका द्वारा की जा सकती है। संविधान में शक्ति पृथक्करण का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, ऐसे में न्यायपालिका नें संविधान की व्याख्या करने का कार्य किया है। अनुच्छेद 121 और 211 विधायिका को अपने कर्तव्यों के निर्वहन में किसी भी न्यायाधीश के आचरण पर चर्चा करने से मना करते हैंवहीं दूसरी तरफ, अनुच्छेद 122 और 212 अदालतों को विधायिका की आंतरिक कार्यवाही पर निर्णय लेने से रोकते हैं। कुछ ऐसे भी उदाहरण हैं जहां न्यापालिका द्वारा कार्यपालिका के कार्यक्षेत्र का अतिक्रमण भी किया गया है जैसे सुभाष काशीनाथ महाजन बनाम महाराष्ट्र राज्य (2018) तथा राजेश शर्मा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2017) आदि।

न्यायपालिका की सक्रियता से कार्यपालिका के उन फैसलों की समीक्षा की जा सकती है जो लोककल्याण में बाधा बनते हैं। कोई सार्वजनिक शक्ति अपनी शक्तियों का दुरूपयोग कर, नागरिकों को नुकसान पहुंचाती है, अथवा ऐसे मामले जिनमें विधायिक बहुमत के मुद्दे पर फंस जाती है, ऐसे में न्यायपालिका सक्रिय भूमिका निभाते हुऐ लोककल्याण में न्यायिक समीक्षा कर फैसले ले सकती है। हालांकि न्यायिक सक्रिया के विरोधी अक्सर तर्क देते हैं कि न्यायधीश किसी भी कानून आदि के अधिकारों पर अतिक्रमण कर सकते हैं, अथवा ऐसे फैसले ले सकते हैं, जो निजी उद्देश्यों से प्रेरित हो सकते हैं। निरंतर न्यायिक हस्तक्षेपों के कारण सरकारी संस्थानों की दक्षता, गुणवत्ता पर लोगों का विश्वास कम हो सकता है।

हालांकि न्यायिक सक्रियता का स्पष्ट उल्लेख संविधान में नही है, यह तो न्यायपालिका के द्वारा लोककल्याण की भावना से तैयार एक प्रभावशाली औजार है । न्यायिक सक्रियता से लोक कल्याण के फैसले तो लिए जा सकते हैं, लेकिन इसके दुरूपयोग की आशंका से भी इंकार नहीं किया जा सकता। संतुलन बनाए रखने के लिए न्यायिक अनुशासन की आवश्यकता है। कानूनो का निर्माण करना, या कमियों को दूर करना विधायिका का कार्य है, और उन कानूनों को उचित तरीकों से लागू कराना न्यायपालिका का कार्य है। सभी अंगो को संतुलित ढंग से कार्य करना चाहिए, तभी सही मायनों में लोकतंत्र को मजबूती प्रदान होगी।

 



Thursday, July 16, 2020

आपदा में भी स्वार्थ ढूंढती राजनीति

इतिहास हमें बताता कि क्या हुआ। इतिहास हमें सिखाता है कि हमने क्या गलतियां कीं जो नहीं की जानी चाहिए थीं। जब कभी इतिहास लिखा जाएगा, और अगर मैं इतिहास लिखूँगा, तो यह अवश्य लिखा जाएगा कि जिस समय दुनिया महामारी से जूझ रही थी, लोगों के जीवन पर संकट था, विद्यार्थियों के भविष्य-जीवन अंधकार में थे, उस समय हमारे राजनैतिक दल, अनैतिक रूप से राज्य की सत्ता की खींचतान में लगे थे।
जिस गम्भीर और मूल्यवान समय में, जनहित में सर्वाधिक महत्वपूर्ण फैसले लिए जाने थे, उस समय राज्य में  अप्रत्याशित राजनैतिक उठापटक मची हुई थी। जिम्मेदार लोग मौन थे, और हमारे मतदाताओं ने इस विकट  स्वार्थपूर्ण परिस्थिति का विरोध भी नही किया। राज्य के मतदाताओं ने राजनैतिक दलों से यह प्रश्न तक नहीं किया कि वर्तमान समय राजनैतिक उठापठक का नहीं, बल्कि जनहित में महत्वपूर्ण निर्णय लेने का है, ऐसे में आप क्यों अस्थिरता लाने के प्रयास में हो!  हमारे समझदार मीडिया नें अपनी जिम्मेदारी निभाने के स्थान पर, अपनी प्रसिद्धि कमाने के मार्ग को चुना।
लोकतंत्र और संविधान पर हमला तो अनेकों बार हुआ है, औऱ सम्भवतया भविष्य में भी होगा, लेकिन वर्तमान में जो गम्भीर परिस्थिति बनी हुई है, उसमें लोकतंत्र, शासन, संविधान अथवा राजनैतिक दांवपेचों से अधिक महत्वपूर्ण है आमजन के जीवन और भविष्य की रक्षा!
अरे अत्यधिक बुद्धिमान प्राणियों! जब जनता ही नही बचेगी, लोगों के प्राण ही न बचेंगे, तो शासन क्या निर्जीव वस्तुओं अथवा रोबोट्स पर करोगे?
प्रभावशाली लोग कितना भी प्रभाव का दुरुपयोग कर लें, अपने आप को समाजसेवी और राजनैतिक आलोचक कहने वाले लोग, इस गम्भीर परिस्थिति में कितना भी मौन रह लें, 'शिशु नेता' कितना भी किसी दल का महिमामंडन कर लें, संवैधानिक औऱ कानूनी दांवपेचों का प्रयोग करके चाहे कोई पक्ष जीते, कोई हारे, लेकिन यह बात तय है कि इस सब संकट में आमजन पिसता जा रहा है। उसके हित के लिए आवश्यक निर्णय नही हो पा रहे हैं और दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि वो आम आदमी एकदम चुप है, मानों पाषाण प्रतिमा हो! प्रभावशाली लोगों की चाटूकारिता की प्रवृत्ति, औऱ बलशाली लोगों के दिखाए भय ने सबको मौन कर रखा है!
प्रश्न यह नही है कि कौनसा दल सही है, कौनसा गलत, अथवा किस पक्ष ने सही निर्णय लिया, या किस पक्ष ने गलती की। सवाल यह है कि जब जनहित और जनजीवन पर संकट का समय था, राज्य और देश के लोगों को मदद की सर्वाधिक आवश्यकता थी, उस समय सभी जिम्मेदार लोग निज स्वार्थ में मग्न थे, औऱ उनके समर्थक उनसे प्रश्न करने के स्थान पर उनकी जयजयकार करते जा रहे थे।
देश मे प्रतिदिन 25 हजार से ज्यादा संक्रमण के केस आ रहे हैं, और इनकी संख्या में निरंतरता के साथ वृद्धि होती जा रही है। एक मिलियन अर्थात दस लाख क्रॉस होने वाला है। विशेषज्ञ चिंतित हैं! डॉक्टर और अन्य स्वास्थ्यकर्मी निरन्तर पुरूषार्थ की पराकाष्ठा करते हुए जीवन को बचाने में लगे हुए हैं। हमारे शोधकर्ताओं ने उपचार और वैक्सीन ढूंढने के लिए दिन-रात एक किया हुआ है। हमारे ऐसे बुजुर्ग अथवा वरिष्ठ शिक्षक जिन्होंने कभी कैमरे का अथवा मोबाइल आदि का सामना नही किया, जिन्होंने कभी वीडियो कॉलिंग नही की, वो समय की गम्भीरता को समझते हुए , विभिन्न कठिनाईयों का सामना करते हुए बच्चों को ऑनलाइन पढा रहे हैं। हमारे सफाईकर्मी निरन्तर अपने काम में लगे हुए हैं। हमारे प्रशासनिक अधिकारी, कर्मचारी और हमारे पुलिसकर्मी, अपनी जान जोखिम में डालकर जनसेवा कर रहे हैं। हमारे रेहड़ीवाले, सब्जी वाले, अखबार वाले अपने अपने काम को बखूबी निभा रहे हैं। लेकिन हमारे वो जिम्मेदार राजनैतिक दल, जिनका दायित्व है कि इन सबको पर्याप्त सहयोग दे, वो इस समय राजनीतिक उठापठक में लगे हैं। हमारा मीडिया, उस उठापठक को इस तरह दिखा रहा है मानों देश मे कोई और घटना ही नहीं घट रही।  हमारा आम आदमी, जिसको इन सबका विरोध करना चाहिए, वो या तो टीवी पर आँखें टिकाकर न्यूज देखे जा रहा है, या व्हाट्सएप फॉरवर्ड और पोस्ट्स को पढ़कर, अपने आप को कुशल राजनीतिक विश्लेषक समझकर अनावश्यक चर्चा में मशगूल है। 
कोरोना आया है, तो हमें बहुत कुछ सिखा रहा है। लेकिन समस्या है कि ये एक क्रूर शिक्षक है,  और न सीखने वालों को ये कड़ा दंड भी दे रहा है। भविष्य उन्ही का है जो मजबूत हैं , डार्विन भी यह बात सदियों पहले समझ चुका था, चाणक्य हजारों साल पहले यह बता चुका था। लेकिन हम मजबूत बनने के बजाय इतना कमजोर हो गए हैं कि आवाज तक नहीं उठा रहे। हमारा नैतिक पतन होता जा रहा है, और हमारा आत्मबल इतना कमजोर हो गया है कि गलत को गलत कहने की हिम्मत तक नहीं जुटा पा रहे।
वर्तमान समय एक ऐसा समय है जो भविष्य को लिए यह तय करेगा कि क्या वास्तव में मनुष्य 'सभ्य' बन पाया है, या अभी भी लाखों साल पहले के आदिमानव की तरह भोजन, वस्त्र और अन्य भौतिक वस्तुओं के पीछे एक-दूसरे को मार डालने पर उतारू है। हमारे वीर योद्धा, हमारे स्वतंत्रता सेनानी, हमारे सैनिक, हमारे महान राजा, हमारी वीरांगनाएं, हमारे संत और हमारे अच्छे शिक्षक जब स्वर्ग से वर्तमान परिस्थितियों को देख रहे होंगे, तो सोच रहे होंगे कि क्या ये वही दुनिया है जिसकी कल्पना उन्होंने की, और उस कल्पना को साकार करने में अपना जीवन अर्पित कर दिया!
श्रीमद्भागवत गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि "धर्मयुद्ध में कोई निरपेक्ष नहीं रह सकता! जो धर्म के साथ नही हैं, अथवा मौन है, वो अधर्म का समर्थक है।" और कुछ तथाकथित तर्कवादी और बुद्धिजीवयों को यह स्पष्ट कर दूं कि यहां धर्म का मतलब किसी पूजा पद्धिति से नहीं, बल्कि यहां धर्म का मतलब सच्चाई,अच्छाई, मानवता, ईमानदारी आदि मूल्यों से हैं।
खैर लगे रहो। 

सर्फ पुदीना के सपने में ‘लोकतंत्र रक्षक’

 सुबह जागकर मैं जब फोन पर मॉर्निंग वॉक कर रहा था तभी भागता हुआ मेरा मित्र ‘सर्फ पुदीना’ आ पहुंचा। वैसे तो सर्फ पुदीना का असली नाम सर्फ पुदीन...