Thursday, February 18, 2021

विदेश नीति पर नेताओं के बयानों से उपजता भ्रम

 भारत गणराज्य में जब भी आम चुनाव होते हैं, तो हर बार चुनकर आने वाली नई सरकार से यह आशा की जाती है कि वो भारत की विदेश नीति में सकारात्मक करेगी और अन्य राष्ट्रों के साथ संबंधों पर एक स्पष्ट रुख रखेगी। इस उद्देश्य से विदेश मंत्री का महत्वपूर्ण पद किसी ऐसे व्यक्ति को सौंपा जाता है जो उद्देश्यों की पूर्ति कर सके। मंत्री के सहयोग के लिए विदेश सचिव एवं अन्य अधिकारीगण नियुक्त किए जाते हैं। विदेश मंत्रालय के आधिकारिक रुख और आधिकारिक बयानों को आमजन तक पहुंचाने के लिए प्रवक्ता भी नियुक्त किए जाते हैं, जो स्वयं ही एक सक्षम व्यक्ति होते हैं। इसके बाद सरकार विदेश नीति की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी इस कार्यालय को सौंप देती  है। फिर समय के साथ साथ विदेश नीति से संबंधित निर्णय लिए जाते हैं। विदेश नीति से संबंधित कौन सक्षम व्यक्ति क्या बयान देगा, यह भी सावधानी के साथ तय किया जाता है क्योंकि बयानों में थोडी सी गलती भी दो या अधिक राष्ट्रों के मध्य भ्रम की स्थिति उत्पन्न कर सकती है। विभिन्न राष्ट्रों के विदेश मंत्री/विदेश सचिव अथवा अन्य समकक्ष/सक्षम लोग मिलते हैं और संबंधों को नई दिशा में ले जाने के लिए कार्य करते हैं। यह किसी भी राष्ट्र एवं सरकार के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण होता है कि वो अपनी विदेश नीति में सफल हो। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए यह आशा की जाती है कि उस राष्ट्र के अन्य जिम्मेदार लोग, अनर्गल बयानबाजी करके स्थिति को जटिल नहीं बनाएं।

पिछले कुछ समय में यह देखने को आया है कि देश के अनेकों महत्वपूर्ण व्यक्ति चाहे वो राजनीति से संबंधित हों, पत्रकार हों, लेखक, कलाकार या अन्य प्रतिष्ठित क्षेत्रों से संबंधित हो, विदेश नीति पर अपनी टिप्पणी कर देते हैं। विभिन्न राष्ट्रों के साथ न केवल अपनी विदेश नीति, बल्कि उस राष्ट्र और उस के साथ संबंध पर अपनी निजी राय भी असावधानीपूर्वक  दे डालते है। आज के तीव्र संचार के युग में ऐसी टिप्पणियां द्रुत गति से दुनियाभर में अपनी जगह प्राप्त कर लेती है। दुनियाभर के प्रतिष्ठित मीडिया हाउसेज, निरंतर ऐसे बयानों पर लेखन/कवरेज करते हैं। कुछ मीडिया हाउसेज इन बयानों का उल्लेख करते हुए उनका उपयोग अपने प्रोपोगेंडा को प्रसारित करने में भी करते हैं। इससे जिस राष्ट्र के बारे में टिप्पणी की गई है, वहां के नागरिकों के मन में भ्रम उत्पन्न हो जाता है। अनेकों बार यह भ्रम, कडवाहट की ओर भी ले जाता है। इससे राष्ट्रों के नागरिकों के मन में परस्पर बंधुत्व की भावना की हानि होती है। इस स्थिति का लाभ उठाकर, कुछ समूह अथवा राष्ट्र अपने निजी हितों को साधने का कुटिल प्रयास भी करते हैं। बहुदा वो इसमें सफल भी हो जाते हैं। 

हाल ही में भारत के एक राज्य के मुख्यमंत्री ने, भारत के एक महत्वपूर्ण व्यक्तित्व, जो एक राजनैतिक दल के तात्कालीन अध्यक्ष थे,  का उल्लेख करते हुए दावा किया कि उनकी पार्टी भारत के पडोसी राष्ट्रों विशेषतः नेपाल और श्रीलंका में सरकार बनाने की योजना रखती है। (संदर्भ - New Indian Express ) । इस समाचार के लेख का उल्लेख करते हुए एक ट्विटर यूजर ने इस खबर से जुड़े एक रिपोर्ट को नेपाल के पीएम केपी शर्मा ओली और विदेश मंत्री प्रदीप ग्यावली को टैग करते हुए पूछा कि इस खबर की ओर वे नेपाल की सरकार का ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं। इसका जवाब देते हुए विदेश मंत्री प्रदीप ग्यावली ने जवाब दिया और कहा कि इस मुद्दे को नोट कर लिया गया है और भारत सरकार केसाथ औपचारिक विरोध दर्ज करा दिया गया है। उन्होंने कहा, "नोट कर लिया गया है और औपचारिक आपत्ति दर्ज करा दी गई है।" (संदर्भ - आज तक )

इस तरह के घटनाक्रम से एक अजीब स्थिति उत्पन्न होती है। जो उन मुख्यमंत्री महोदय ने कहा था, उसका कोई विशेष आधार नहीं है। यह भारत सरकार का आधिकारिक रुख नही हैं। यह भारत के किसी भी राजनैतिक दल का आधिकारिक रुख भी नहीं है। लेकिन इस तरह के बयानों से दूसरे राष्ट्र के नागरिकों के मध्य सकारात्मक संदेश बिल्कुल नहीं जाता। ऐसे बयान, भारत सरकार और भारत के विदेश मंत्रालय के समक्ष स्थितियों को अधिक जटिल बनाने का कार्य करता है। हमारें जिम्मेदार नेताओं और महत्वपूर्ण व्यक्तियों को समझना चाहिए कि वो जिस पद पर हैं, उस पद पर रहकर उनके द्वारा की जाने वाली हर टिप्पणी अपने आप में अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। ऐसे में उनको अपनी राय व्यक्त करते समय  अथवा टिप्पणी करते समय सावधानी रखनी चाहिए। विदेश मंत्रालय को भी ऐसे महत्वपूर्ण व्यक्तियों को सलाह देनी चाहिए कि वो विदेश नीति और विदेशों से संबंधित मामलों में अनावश्यक  टिप्पणी करने बचें। यदि टिप्पणी आवश्यक हो तो पूरी सावधानी के साथ ही अपनी बात रखें।

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