राहतों के समंदर में,
अश्क घुल जाता तो शायद...।
ख्वाबों में थी जन्नत मेरी,
गर आंख लग जाती तो शायद...।
सहर, कारवां, घर, गली,
दरिया भी अपने थे सभी,
हर शै थी पास मेरे,
पर वो ठहराव न मिला तो शायद...।
चार कंधों से पहले,
एक मिल जाता तो शायद...!
-सौम्य
(SAUMY MITTAL
RESEARCH SCHOLAR, UNIVERSITY OF RAJASTHAN)
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